मुझ से पहली सी महब्बत मेरी महबूब ना मांग ।
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख्शाँ है हयात
तेरा ॰गम है तो ॰गम -ए- दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूं हो जाये
यूं न था मैं ने फ़कत चाहा था यूं हो जाये
और भी दुःख है ज़माने में महब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा ।
मुझ से पहली सी महब्बत मेरी महबूब न मांग
- फैज़ अहमद फैज़
with apologies to those who cannot read nagari...
that's it for now...ciao, adios, au revoir...and remember...to be born again first you must die
~me
1 comment:
Apology not accepted. But I have given up asking for explanations.
Post a Comment